
ब्रह्मवैवर्त पुराण के चौथे अध्याय के अनुसार कण्वशाखा में सरस्वती पूजन की विधि वर्णित है। माघ शुक्ल पञ्चमी विद्यारम्भ की मुख्य तिथि है। उस दिन पूराह्नकाल में ही प्रतिज्ञा करके संयमशील एवं पवित्र हो, स्नान और नित्य-क्रिया के पश्चात् भक्तिपूर्वक कलशस्थापन करे। फिर नैवेद्य आदि से इन छः देवताओं का पूजन करें। पहले गणेश का, फिर सूर्य, अग्नि, विष्णु शिव और पार्वती का पूजन करने के बाद इष्टदेवता सरस्वती का पूजन करना उचित है। फिर ध्यान करके देवी का आवाहन करे। उसके बाद व्रती षोडशोपचार से भगवती की पूजा करे। नैवेद्य के लिए इनका उपयोग करना चाहिए – ताजा मक्खन, दही, दूध, धान का लावा, तिल के लड्डू, सफेद गन्ना और उसका रस, उसे पकाकर बनाया हुआ गुड़, स्वस्तिक (एक प्रकार का पकवान), शक्कर या मिश्री, सफ़ेद धान का चावल जो टूटा न हो (अक्षत), बिना उबाले हुए धान का चिउड़ा, सफ़ेद लड्डू, धी और सेंधा नमक डालकर तैयार किये गये व्यंजन के साथ शास्त्रोक्त हविष्यान्न, अथवा गेहूँ के आटे से घी में तले हुए पदार्थ, पके हुए स्वच्छ केले का पिष्टक, उत्तम अन्न को घी में पकाकर उससे बना हुआ अमृत के समान मधुर मिष्टान्न, नारियल, उसका पानी, कसेरू, मूली, अदरख, पका हुआ केला, बढ़िया बेल, बेर का फल, देश और समय के अनुसार उपलब्ध ऋतुफल तथा अन्य भी पवित्र स्वच्छ वर्ण के फल – ये सब नैवेद्य के समान हैं।
सुगंधित सफेद पुष्प, सफेद स्वच्छ चन्दन तथा नए सफेद वस्त्र और सुन्दर शंख देवी सरस्वती को अर्पण करना चाहिए। श्वेत (सफेद) पुष्पों की माला और श्वेत भूषण भी भगवती को चढ़ावे।
भगवती सरस्वती का श्रेष्ठ ध्यान परम सुखदायी है तथा भ्रम का उच्छेद (नाश) करने वाला है। वह ध्यान इस प्रकार है – सरस्वती का श्रीविग्रह शुक्लवर्ण है। ये परम सुंदरी देवी सदा मुस्कुराती रहती हैं। इनके परिपुष्ट विग्रह के सामने करोड़ों चंद्रमा की प्रभा भी तुच्छ है। ये विशुद्ध चिन्मय वस्त्र पहने हैं। इनके एक हाथ में वीणा है और दूसरे में पुस्तक। सर्वोत्तम रत्नों से बने हुए आभूषण इन्हें सुशोभित कर रहे हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रभृति प्रधान देवताओं तथा सुरगणों से ये सुपूजित हैं। श्रेष्ठ मुनि, मनु तथा मानव इनके चरणों में मस्तक झुकाते हैं। ऐसी भगवती सरस्वती को मैं भक्तिपूर्वक प्रणाम करता हूँ।
इस प्रकार ध्यान करके विद्वान् पुरुष पूजन के समग्र पदार्थ मूलमंत्र से विधिवत् सरस्वती को अर्पण कर दे। फिर कवच का पाठ करने के बाद दण्ड की भांति भूमि पर पड़कर देवी को साष्टांग प्रणाम करे। जो पुरुष भगवती सरस्वती को अपनी इष्ट देवी मानते हैं, उनके लिए यह नित्यक्रिया है। बालकों के विद्यारम्भ के अवसर पर वर्ष के अंत में माघ शुक्ल पञ्चमी के दिन सभी को इन सरस्वती देवी की पूजा करनी चाहिए।
इनका बीज मंत्र है – श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा। चार लाख जप करने पर मनुष्य के लिए यह मंत्र सिद्ध हो सकता है। इस मंत्र के सिद्ध हो जाने पर अवश्य ही मनुष्य में बृहस्पति के समान योग्यता प्राप्त हो सकती है।
प्राचीन काल में कृपा के समुद्र भगवान् नारायण ने वाल्मीकि मुनि को इसी का उपदेश किया था। भारतवर्ष में गंगा के पावन तटपर यह कार्य सम्पन्न हुआ था। फिर सूर्यग्रहण के अवसर पर पुष्करक्षेत्र में भृगुजी से शुक्र को इसका उपदेश दिया था। मरीचिनंदन कश्यप ने चन्द्रग्रहण के समय प्रसन्न होकर बृहस्पति को इसे बताया था। बदरी-आश्रम में परम प्रसन्न ब्रह्मा ने भृगु को इसका उपदेश दिया था। जरत्कारुमुनि क्षीरसागर के पास विराजमान थे। उन्होंने आस्तीक को यह मंत्र पढ़ाया। बुद्धिमान् ऋष्यश्रृंग ने मेरुपर्वत पर विभाण्डक मुनि से इसकी शिक्षा प्राप्त की थी। शिव ने आनंद में आकर गौतम तथा कणाद मुनि को इसका उपदेश किया था। याज्ञवल्क्य और कात्यायन ने सूर्य की दया से इसे पाया था। महाभाग शेष पाताल में बलि के सभाभवन पर विराजमान थे। वहीं उन्होंने पाणिनि, बुद्धिमान् भारद्वाज और शाकटायन को इसका अभ्यास कराया था।
ध्यान करने के बाद स्तोत्र का पाठ करना चाहिए।
देवी सरस्वती का विश्वजय कवच
इस कवच के ऋषि प्रजापति हैं। स्वयं बृहती छंद है। माता शारदा अधिष्ठात्री देवी हैं। अखिल तत्त्वज्ञानपूर्वक सम्पूर्ण अर्थ के साधन तथा समस्त कविताओं के प्रणयन एवं विवेचन में इसका प्रयोग किया जाता है।
श्रीं-ह्रीं-स्वरूपिणी भगवती सरस्वती के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सब ओर से मेरे सिर की रक्षा करें। ॐ श्रीं वाग्देवता के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सदा मेरे ललाट की रक्षा करें। ॐ ह्रीं भगवती सरस्वती के लिए श्रद्धा दी जाती है, वे निरंतर कानों की रक्षा करें। ॐ श्रीं-ह्रीं भारती के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सदा दोनों नेत्रों की रक्षा करें। एं-ह्रीं भारती के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सदा दोनों नेत्रों की रक्षा करें। एं-ह्रीं-स्वरूपिणी वाग्वादिनी के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सब ओर से मेरी नासिका की रक्षा करें। ॐ ह्रीं विद्या की अधिष्ठात्री देवी के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे होठ की रक्षा करें। ‘ऐं’ यह देवी सरस्वती का एकाक्षर-मंत्र मेरे कण्ठ की सदा रक्षा करे। ॐ श्रीं ह्रीं मेरे गले की तथा श्रीं मेरे कंधों की सदा रक्षा करे। ॐ श्रीं विद्या की अधिष्ठात्री देवी के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सदा वक्ष:स्थल की रक्षा करें। ॐ ह्रीं विद्यास्वरूपा देवी के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे मेरी नाभि की रक्षा करें। ॐ ह्रीं-क्लीं-स्वरूपिणी देवी वाणी के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सदा मेरे हाथों की रक्षा करें। ॐ-स्वरूपिणी भगवती सर्ववर्णनात्मिका के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे दोनों पैरों को सुरक्षित रखें। ॐ वाग् की अधिष्ठात्री देवी के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे मेरे सर्वस्व की रक्षा करें। सबके कण्ठ में निवास करनेवाली ॐस्वरूपा देवी के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे पूर्व दिशा में सदा मेरी रक्षा करें। जीभ के अग्रभाग पर विराजने वाली ॐ ह्रीं-स्वरूपिणी देवी के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे अग्निकोण में रक्षा करें। ‘ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा। इसको मंत्रराज कहते हैं। यह इसी रूप में सदा विराजमान रहता है। यह निरंतर मेरे दक्षिण भाग की रक्षा करे। ‘ऐं ह्रीं श्रीं’ – यह त्र्यक्षरमंत्र नैरृत्यकोण में सदा मेरी रक्षा करे। कवि की जिह्वा के अग्रभाग पर रहनेवाली ॐ-स्वरूपिणी भगवती सर्वाम्बिका के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे वायव्यकोण में सदा मेरी रक्षा करें। गद्य-पद्य में निवास करने वाली ॐ ऐं श्रींमयी देवी के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे उत्तर दिशा में मेरी रक्षा करें। सम्पूर्ण शास्त्रों में विराजनेवाली ऐं-स्वरूपिणी देवी के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे ईशानकोण में सदा मेरी रक्षा करें। ॐ ह्रीं-स्वरूपिणी सर्वपूजिता देवी के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे ऊपर से मेरी रक्षा करें। पुस्तक में निवास करनेवाली ऐं-ह्रीं-स्वरूपिणी देवी के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे मेरे निम्नभाग की रक्षा करें। ॐ-स्वरूपिणी ग्रन्थबीजस्वरूपा देवी के लिए श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सब ओर से मेरी रक्षा करें।
पुत्र प्राप्ति व्रत जानने के लिए यहाँ Click करें।
असंख्य ब्रह्ममंत्रों का यह मूर्तिमान् विग्रह है। ब्रह्मस्वरूप इस कवच को ‘विश्वजय’ कहते हैं। विद्वान् पुरुष को चाहिए कि वस्त्र, चन्दन और अलंकार आदि सामानों से विधिपूर्वक गुरु की पूजा करके दण्ड की भांति जमीन पर पड़कर उन्हें प्रणाम करे। उसके बाद इस कवच का अध्ययन करके इसे ह्रदय में धारण करे। पाँच लाख जप करने के बाद यह कवच सिद्ध हो जाता है। इस कवच के सिद्ध हो जाने पर पुरुष को बृहस्पति के समान पूर्ण योग्यता प्राप्त हो सकती है। इस कवच के प्रसाद से पुरुष भाषण करने में परम चतुर, कवियों का सम्राट और त्रैलोक्यविजयी हो सकता है।
इसका संस्कृत इस प्रकार है:-
