
भूमिका
वेदों में सबसे अधिक स्तुति पाने वाले देवता कौन हैं? उत्तर है – इंद्र देव। ऋग्वेद में इंद्र के नाम सबसे अधिक मंत्र मिलते हैं। इंद्र को वज्रधारी, मेघों के स्वामी, देवताओं के राजा, और अशुरों के संहारक के रूप में पूजा जाता था। लेकिन आज, जब हम मंदिरों में जाते हैं या त्यौहार मनाते हैं, तो कहीं भी इंद्र की पूजा नहीं होती। तो फिर ऐसा क्या हुआ कि एक समय का पूज्य इंद्र देव, अब केवल कथाओं में रह गया?
इंद्र देव का परिचय – कौन हैं इंद्र?
इंद्र देव वैदिक देवताओं में सबसे प्रमुख माने जाते थे। वे स्वर्ग के राजा हैं, वज्र नामक अस्त्र के स्वामी, ऐरावत हाथी के सवार और सुरों के नायक। इंद्र का मूल कार्य था – मेघों से वर्षा कराना, असुरों से देवताओं की रक्षा करना, और पृथ्वी पर संतुलन बनाए रखना। लेकिन इंद्र कोई एक व्यक्ति नहीं, यह एक “पद” है। जैसे आज के इंद्र देव का नाम “पुरंदर” है, वैसे ही पूर्वकाल में अन्य इंद्र भी हुए। यह पद तप, यज्ञ और धर्मपालन से अर्जित होता है। इंद्र का अर्थ है – इंद्रिय-तंत्र का स्वामी, जो विषयों पर नियंत्रण रखे।
वैदिक युग में इंद्र की महिमा
ऋग्वेद में इंद्र देव के लिए 250 से अधिक ऋचाएं हैं, जो उन्हें देवताओं में सर्वश्रेष्ठ घोषित करती हैं। वे देवों में सबसे शक्तिशाली माने जाते थे। जब कोई राजा यज्ञ करता था, तो सबसे पहले इंद्र का आह्वान होता था, और उन्हें सोमरस का सर्वाधिक भाग अर्पित किया जाता था।
इंद्र देव को वर्षा का देवता मानकर कृषि पर निर्भर समाज में विशेष स्थान प्राप्त था। जब वर्षा होती, तो लोग इंद्र के नाम का धन्यवाद करते। उन्हें केवल युद्ध का देवता नहीं, बल्कि जीवनदायिनी शक्ति का स्रोत माना जाता था।
इंद्र की प्रसिद्ध कथाएँ – शक्तियों का अहंकार
(i) अहिल्या प्रसंग:
एक समय की बात है इंद्र देव अपनी सभा में बैठे थे कि तभी वहाँ देवगुरु बृहस्पति आए। लेकिन इंद्र ने न तो उनका आदर सत्कार किया और न ही अपने सिंहासन से उठे। इसे देख देवगुरु बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने मन ही मन इंद्र को श्राप देकर चले गए। श्राप ये था कि इंद्र की श्री (मति-सम्पत्ति) चली जाए। देवगुरु के जाते ही इंद्र देव पर उस श्राप का प्रभाव पड़ा और स्वर्ग से वो सीधा धरती आ पहुँचे। वन-वन भटकते हुए इंद्र एक तालाब के पास पहुँचे जहाँ महर्षि गौतम की पतिव्रता पत्नी अहिल्या स्नान कर रही थी। उन्हें देख इंद्र इतने मोहित हो गये कि देवी अहिल्या को पाने के लिए अवसर की तलाश करने लगे। ब्रह्ममूहूर्त में महर्षि गौतम शौच-स्नान करने तालाब जाते थे। अवसर पाकर इंद्र ने ऋषि गौतम का वेश रख उनकी कुटिया में पहुँच गये। इधर जब गौतम अपने आश्रम पहुँचे तो उन्होंने देखा कि उन्ही के समान दिखने वाला ऋषि सामने खड़ा है। उन्होंने अपने तप से सारा हाल जान लिया और क्रोधित होकर इंद्र देव से बोले – तू देवताओं में श्रेष्ठ माना जाता है, प्रजापति दक्ष स्वयं तेरे नाना हैं, ब्रह्मर्षि कश्यप की तू संतान है फिर भी तूने इतना नीच कर्म किया? इतना कहकर गौतम से इंद्र और अहिल्या दोनों को श्राप दे दिया।
(ii) मेघनाद से पराजय:
रावण के पुत्र मेघनाद ने इंद्र को युद्ध में हराकर बंदी बना लिया था। तभी से उसका नाम ‘इंद्रजीत’ पड़ा। देवराज की इस हार ने लोकमानस में उनके प्रति श्रद्धा को प्रभावित किया।
(iii) गोवर्धन प्रसंग:
श्रीकृष्ण ने ब्रजवासियों को गोवर्धन पर्वत की पूजा करने को कहा, ताकि वे इंद्र के भय से मुक्त हो सकें। इंद्र ने ब्रज में मूसलधार वर्षा कर दी, परंतु श्रीकृष्ण ने पर्वत उठाकर सभी की रक्षा की। अंततः इंद्र ने स्वीकार किया कि उनका अहंकार व्यर्थ था। यह कथा प्रतीक है कि अहंकार की पूजा नहीं होती।
(iv) दधीचि की अस्थियाँ:
जब असुरों से युद्ध हुआ, तो इंद्र देव को वज्र चाहिए था। दधीचि ऋषि ने अपनी हड्डियाँ दान कर दीं, जिससे वज्र बना। यह दिखाता है कि इंद्र की शक्ति भी दूसरों की तपस्या पर निर्भर थी।
पुराणों में इंद्र की छवि
पुराणों में इंद्र को कई बार स्वार्थी, ईर्ष्यालु, और डरपोक दिखाया गया है। वे बार-बार राक्षसों से पराजित होते, भागते और त्रिदेवों की सहायता मांगते हैं।
उदाहरण:
- वामन अवतार में बलि राजा से इंद्र का राज्य छीन लिया गया था।
- नरसिंह अवतार में वे छुपकर बैठे रहे।
- मोहिनी अवतार में उन्होंने मोहिनी रूप का लालच किया।
ये सभी प्रसंग बताते हैं कि इंद्र धीरे-धीरे ‘देवताओं के राजा’ से ‘मानव-सदृश त्रुटिपूर्ण पात्र’ बनते गए।
वैदिक से पुराण काल – छवि का परिवर्तन
जहाँ वेदों में इंद्र देव को सर्वोच्च माना गया, वहीं पुराणों में उनकी छवि धीरे-धीरे हास्यास्पद बन गई। इसका एक कारण यह भी है कि बाद के युगों में विष्णु, शिव और देवी की महिमा अधिक होने लगी। समाज अब ‘सर्वशक्तिमान’, ‘करुणामय’ और ‘निष्कलंक’ ईश्वर को पूजने लगा।
भगवान् विष्णु की सात्विकता, शिव की तपस्या और देवी दुर्गा की शक्ति – इन गुणों ने इंद्र को पीछे छोड़ दिया। लोग अब शक्ति के साथ नैतिकता और करुणा भी चाहते थे।
अहंकार और उत्तरदायित्व का संतुलन
इंद्र देव का पतन केवल कथात्मक नहीं, बल्कि गहरा दार्शनिक है। जब भी कोई शक्ति अहंकार में बदलती है, तो उसका पतन निश्चित होता है। ब्रह्मा ने चार वर्ण बनाए और उन सबके लिए कर्म और दण्ड की व्यवस्था की। जैसे:
- एक गलती के लिए शूद्र को कम दण्ड,
- वैश्य को अधिक,
- क्षत्रिय को उससे अधिक,
- और ब्राह्मण को सबसे कठोर दण्ड मिलता है, क्योंकि वह सबसे अधिक ज्ञानी होता है।
तो जो देवताओं का राजा हो – उसकी जवाबदेही सबसे अधिक होगी। इंद्र ने जब-जब इस जिम्मेदारी को नहीं निभाया, तब-तब उन्होंने अपना पूज्य स्थान खो दिया।
क्या इंद्र की पूजा आज भी होती है?
कुछ क्षेत्रों में जैसे – राजस्थान, उत्तराखंड और नेपाल के कुछ गांवों में वर्षा के देवता के रूप में इंद्र की पूजा आज भी होती है। लेकिन यह पूजा लोकाचार और परंपरा तक सीमित है, न कि वैदिक महत्ता के रूप में। मुख्यधारा में इंद्र की पूजा न के बराबर रह गई है।
इसके स्थान पर:
- गोवर्धन पूजा को महत्व मिला,
- श्रीहरि विष्णु की आराधना बढ़ी,
- शिव और माँ दुर्गा की महिमा फैली।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण – इंद्र एक चेतावनी हैं
इंद्र अब एक पात्र हैं – जो हमें यह सिखाते हैं कि:
- शक्ति को संयम चाहिए,
- पद को विवेक चाहिए,
- और प्रतिष्ठा को करुणा।
जो इनसे चूकेगा, उसका पतन निश्चित है – चाहे वह देवता ही क्यों न हो।
निष्कर्ष
- उनकी कथाओं में नैतिक गिरावट दिखाई गई
- अहंकार, ईर्ष्या और स्वार्थ उनके चरित्र का हिस्सा बन गए
- उन्होंने बार-बार ऋषियों से टकराव किया और श्राप पाए
- लोगों ने उनमें ‘परमेश्वर’ की छवि देखनी बंद कर दी
- विष्णु, शिव और माँ दुर्गा जैसे देवी-देवताओं की छवि अधिक पवित्र और करुणामयी थी
इंद्र देव अब पूजनीय नहीं, बल्कि चेतावनी और सीख का प्रतीक बन चुके हैं। वे हमें याद दिलाते हैं – कि शक्ति और अहंकार के बीच एक महीन रेखा होती है, जिसे पार करना स्वयं के पतन की ओर ले जाता है।