
श्रीमद्देवीभागवत पुराण में नवरात्रि-व्रत का विधान बताया गया है।
अमावस्या आने पर नवरात्रि व्रत की सभी शुभ सामग्री एकत्रित कर लें और उस दिन एकभुक्त व्रत करें और हविष्य ग्रहण करें। किसी समतल तथा पवित्र स्थान में 16 हाथ लम्बे-चौड़े और स्तम्भ तथा ध्वजाओं से सुसज्जित मण्डप का निर्माण करना चाहिए। उसको सफेद मिट्टी और गोबर से लिपवा दे। उसके बाद उस मण्डप के बीच में सुन्दर, चौरस और स्थिर वेदी बनायें। ये वेदी 4 हाथ लम्बी-चौड़ी और हाथभर ऊँची होनी चाहिए। पीठ के लिए उत्तम स्थान का निर्माण करें तथा विविध रंगों के तोरण लटकाएँ और ऊपर चाँदनी लगा दें।
रात में देवी का तत्त्व जानने वाले, सदाचारी, संयमी और देव-वेदांगों के पारंगत विद्वान् ब्राह्मणों को आमंत्रित करके प्रतिपदा के दिन प्रात:काल नदी, नद, सरोवर, बावली, कुआँ या घरपर ही विधिवत् स्नान करें। प्रात:काल के समय नित्यकर्म करके ब्राह्मणों का वरण कर उन्हें मधुपर्क तथा अर्घ्य-पाद्य आदि अर्पण करें। अपनी शक्ति अनुसार उन्हें वस्त्र, अलंकार आदि प्रदान करें। धन रहते हुए इस काम में कभी कृपणता (कंजूसी) न करें।
संतुष्ट ब्राह्मणों के द्वारा किया हुआ कर्म सम्यक् प्रकार से परिपूर्ण होता है। देवी का पाठ करने के लिए नौ, पाँच, तीन अथवा एक ब्राह्मण बताये गये हैं। देवीभागवत का परायण करने के कार्य में किसी शांत ब्राह्मण का वरण करें और वैदिक मंत्रों से स्वस्तिवाचन कराएँ। वेदी पर रेशमी वस्त्र से आच्छादित सिंहासन स्थापित करें। उसके ऊपर चार भुजाओं तथा उन में आयुधों से युक्त देवी की प्रतिमा स्थापित करें। भगवती की प्रतिमा रत्नमय भूषणों से युक्त, मोतियों के हार से अलंकृत, दिव्य वस्त्रों से सुसज्जित, शुभलक्ष्णसम्पन्न और सौम्य आकृति की हो। वे कल्याणमयी भगवती शंख-चक्र-गदा-पद्म धारण किये हुए हों और सिंह पर सवार हों; अथवा 18 भुजाओं s सुशोभित सनातनी देवी को प्रतिष्ठित करें।
भगवती की प्रतिमा के अभाव में नवार्णमंत्रयुक्त यंत्र को पीठ पर स्थापित करें और पीठपूजा के लिए पास में कलश भी स्थापित कर लें। वह कलश पञ्चपल्लवयुक्त, वैदिक मंत्रों से भलीभांति संस्कृत, उत्तम तीर्थ के जल से पूर्ण और सुवर्ण तथा पञ्चरत्नमय होना चाहिए। पास में पूजा की सब सामग्रियाँ रखकर उत्सव के निमित्त गीत तथा वाद्यों की ध्वनि भी करानी चाहिए।
हस्तनक्षत्रयुक्त नन्दा (प्रतिपदा) तिथि में पूजन श्रेष्ठ माना जाता है। पहले दिन विधिवत् किया हुआ पूजन मनुष्यों का मनोरथ पूर्ण करनेवाला होता है। सबसे पहले उपवासव्रत, एकभुक्त अथवा नक्तव्रत – इनमें से किसी भी एक व्रत के द्वारा नियम करने के बाद ही पूजा करनी चाहिए।
पूजा के पहले प्रार्थना
पूजन के पहले प्रार्थना करते हुए कहे – हे माता! मैं सर्वश्रेष्ठ नवरात्रव्रत करूँगा। हे देवि! हे जगदम्बे! इस पवित्र कार्य में आप मेरी सम्पूर्ण सहायता करें। इस व्रत के लिए यथाशक्ति नियम रखें। उसके बाद मंत्रोच्चारणपूर्वक विधिवत् भगवती का पूजन करें।
पूजा कैसे करनी चाहिए
चन्दन, अगरु, कपूर तथा मंदार, करंज, अशोक, चम्पा, कनैल, मालती, ब्राह्मी आदि सुगन्धित पुष्पों, सुन्दर बिल्वपत्रों और धूप-दीप से विधिवत् भगवती जगदम्बा का पूजन करना चाहिए। उस अवसर पर अर्घ्य भी प्रदान करें। नारियल, बिजौरा नीबू, दाडिम, केला, नारंगी, कटहल तथा बिल्वफल आदि अनेक प्रकार के सुन्दर फलों के साथ भक्तिपूर्वक अन्न का नैवेद्य एवं पवित्र बलि अर्पित करें।
होम के लिए त्रिकोण कुण्ड बनाना चाहिए अथवा त्रिकोण के मान के अनुरूप उत्तम वेदी बनानी चाहिए। विविध प्रकार के सुन्दर द्रव्यों से प्रतिदिन भगवती का त्रिकाल (प्रात:-सायं-मध्याह्न) पूजन करना चाहिए और गायन, वादन तथा नृत्य के द्वारा महान् उत्सव मनाना चाहिए।
व्रती नित्य भूमि पर सोये और वस्त्र, आभूषण तथा अमृत के सदृश दिव्य भोजन आदि से कुमारी कन्याओं का पूजन करे। नित्य एक ही कुमारी का पूजन करे या प्रतिदिन एक-एक कुमारी की संख्या के वृद्धिक्रम से पूजन करें या प्रतिदिन दुगुने-तिगुने के वृद्धिक्रम से और या तो प्रत्येक दिन नौ कुमारी कन्याओं का पूजन करें।
किन कन्याओं का पूजन करना चाहिए
पूजाविधि में एक वर्ष की अवस्थावाली कन्या नहीं लेनी चाहिय; क्योंकि वह कन्या गंध और भोग आदि पदार्थों से बिलकुल अनभिज्ञ होती है। कुमारी कन्या वह कही गयी है, जो दो वर्ष की हो चुकी हो। तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति, चार वर्ष की कन्या कल्याणी, पाँच वर्ष की कन्या रोहिणी, छ: वर्ष की कन्या कालिका, सात वर्ष की कन्या चण्डिका, आठ वर्ष की कन्या शाम्भवी, नौ वर्ष की कन्या दुर्गा और दस वर्ष की कन्या सुभद्रा कहलाती है। इससे ऊपर की अवस्थावाली कन्या का पूजन नहीं करना चाहिए; क्योंकि वह सभी कार्यों में निन्द्य मानी जाती है। इन नामों से कुमारी का विधिवत् पूजन सदा करना चाहिए।
इन 9 कन्याओं के पूजन का फल
कुमारी – ‘कुमारी’ नाम की कन्या पूजित होकर दुःख तथा दरिद्रता का नाश करती है; वह शत्रुओं का क्षय और धन, आयु तथा बल की वृद्धि करती है।
त्रिमूर्ति – ‘त्रिमूर्ति’ नाम की कन्या का पूजन करने से धर्म-अर्थ-काम की पूर्ति होती है, धन-धान्य का आगम होता है और पुत्र-पौत्र आदि की वृद्धि होती है।
कल्याणी – ‘कल्याणी’ नाम की कन्या विद्या, विजय, राज्य तथा सुख की कामना पूरी कर, सभी कामनाएँ प्रदान करती है। इस प्रकार कहें:
कल्याणकारिणी नित्यं भक्तानां पूजितानिशम्।
पूजयामि च तां भक्त्या कल्याणीं सर्वकामदाम्।।
अर्थात् – निरंतर पूजित होने पर जो भक्तों का नित्य कल्याण करती हैं, सब प्रकार की कामनाओं को पूर्ण करनेवाली उन भगवती ‘कल्याणी’ का मैं भक्तिपूर्वक पूजन करता हूँ।
कालिका- शत्रुओं का नाश करने के लिए भक्तिपूर्वक ‘कालिका’ का पूजन करना चाहिए। पूजा करते हुए इस प्रकार कहें:
काली कालयते सर्वं ब्रह्माण्डं सचराचरम्।
कल्पान्तसमये या तां कालिकां पूजयाम्य्हम्।।
अर्थात् – जो देवी काली कल्पान्त में चराचरसहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने में विलीन कर लेती हैं, उन भगवती ‘कालिका’ की मैं पूजा करता हूँ।
चण्डिका – धन तथा ऐश्वर्य की अभिलाषा रखनेवाले को ‘चण्डिका’ कन्या की सम्यक् अर्चना करनी चाहिए। पूजा करते हुए इस प्रकार कहें:
चण्डिकां चण्डरूपाञ्च चण्डमुण्डविनाशिनीम्।
तां चण्डपापहरिणीं चण्डिकां पूजयाम्य्हम्।।
अर्थात् – अत्यंत उग्र स्वभाववाली, उग्ररूप धारण करनेवाली, चण्ड-मुण्ड का संहार करनेवाली तथा घोर पापों का नाश करनेवाली उन भगवती ‘चण्डिका’ की मैं पूजा करता हूँ।
शाम्भवी – सम्मोहन, दुःख-दारिद्रय के नाश तथा संग्राम में विजय के लिए ‘शाम्भवी’ कन्या की नित्य पूजा करनी चाहिए। पूजा करते हुए इस प्रकार कहें:
अकारणात्समुत्पत्तिर्यन्मयै: परिकीर्तिता।
यस्यास्तां सुखदां देवीं शाम्भवीं पूजयाम्यहम्।।
अर्थात् – वेद जिनके स्वरूप हैं, उन्हीं वेदों के द्वारा जिनकी उत्पत्ति अकारण बतायी गयी है, उन सुखदायिनी भगवती ‘शाम्भवी’ का मैं पूजन करता हूँ।
दुर्गा – क्रूर शत्रु के विनाश एवं उग्र कर्म की साधना के लिए और परलोक में सुख पाने के लिए ‘दुर्गा’ नामक कन्या की भक्तिपूर्वक आराधना करनी चाहिए। पूजा करते हुए इस प्रकार कहें:
दुर्गात्त्रायति भक्तं या सदा दुर्गार्तिनाशिनी।
दुर्ज्ञेया सर्वदेवानां तां दुर्गां पूजयाम्यहम्।।
अर्थात् – जो अपने भक्त को सर्वदा संकट से बचाती हैं, बड़े-बड़े विघ्नों तथादु:खों का नाश करती हैं और सभी देवताओं के लिए दुर्जेय हैं, उन भगवती ‘दुर्गा’ की मैं पूजा करता हूँ।
सुभद्रा – मनुष्य अपने मनोरथ की सिद्धि के लिए ‘सुभद्रा’ की सदा पूजा करे। पूजा करते हुए इस प्रकार कहें:
सुभद्राणि च भक्तानां कुरुते पूजिता सदा।
अभद्रनाशिनीं देवीं सुभद्रां पूजयाम्यहम्।।
अर्थात् – जो पूजित होने पर भक्तों का सदा कल्याण करती हैं, उन अमंगलनाशिनी भगवती ‘सुभद्रा’ की मैं पूजा करता हूँ।
रोहिणी – रोगनाश के लिए ‘रोहिणी’ की विधिवत् आराधना करनी चाहिए। पूजा करते हुए इस प्रकार कहें:
रोहयन्ती च बीजानि प्राग्जन्मसञ्चितानि वै।
या देवी सर्वभूतानां रोहिणीं पूजयाम्य्हम्।।
अर्थात् – जो देवी सम्पूर्ण जीवों के पूर्वजन्म के संचित कर्मरूपी बीजों का रोपण करती हैं, उन भगवती रोहिणी की मैं उपासना करता हूँ।
‘श्रीरस्तु’ इस मंत्र से अथवा किन्हीं भी श्रीयुक्त देवेमंत्र से अथवा बीजमंत्र से भक्तिपूर्वक भगवती की पूजा करनी चाहिए।
नवरात्रि व्रत में निषिद्ध कन्या
श्रीमद्देवीभागवत पुराण के अनुसार जो कन्या किसी अंग से हीन हो, कोढ़ तथा घावयुक्त हो, जिसके शरीर के किसी अंग से दुर्गंघ आती हो और जो विशाल कुल में उत्पन्न हुई हो – ऐसी कन्या का पूजा में निषिद्ध कन्या मानी जाती है। जन्म से अन्धी, तिरछी नजर से देखनेवाली, कानी, कुरूप, बहुत रोमवाली, रोगी तथा रजस्वला कन्या का पूजा में परित्याग कर देना चाहिए। अत्यंत दुर्बल, समय से पूर्व ही गर्भ से उत्पन्न, विधवा स्त्री से उप्तन्न तथा कन्या से उत्पन्न – ये सभी कन्याएँ पूजा आदि सभी कार्यों में सर्वथा त्याज्य हैं।