
ब्रह्मवैवर्तपुराण के अध्याय 5 में देवी सरस्वती का स्तोत्र वर्णित है जो कि इस प्रकार है:
ऋषिप्रवर भगवान् नारायण कहते हैं – नारद! सरस्वती देवी का स्तोत्र सुनो, जिससे सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं। प्राचीन समय की बात है – याज्ञवल्क्य नाम से प्रसिद्ध एक महामुनि थे। उन्होंने उसी स्तोत्र से भगवती सरस्वती की स्तुति की थी। जब गुरु के शाप से मुनि की श्रेष्ठ विद्या नष्ट हो गयी, तब वे अत्यंत दु:खी होकर लोलार्ककुण्ड पर, जो उत्तम पुण्य प्रदान करने वाला तीर्थ है, गये। उन्होंने तपस्या के द्वारा सूर्य का प्रत्यक्ष दर्शन कर शोकविह्वल हो भगवान् सूर्य का स्तवन तथा बारंबार रोदन किया। तब शक्तिशाली सूर्य ने याज्ञवल्क्य को वेद और वेदांग का अध्ययन कराया। साथ ही कहा – ‘मुने! तुम स्मरण-शक्ति प्राप्त करने के लिए भक्तिपूर्वक वाग्देवता भगवती सरस्वती की स्तुति करो।’ इस प्रकार कहकर दीनजनों पर दया करनेवाले सूर्य अंतर्ध्यान हो गये। तब याज्ञवल्क्य मुनि ने स्नान किया और विनयपूर्वक सिर झुकाकर वे भक्तिपूर्वक स्तुति करने लगे।
याज्ञवल्क्य बोले – जगन्माता! मुझ पर कृपा करो। मेरा तेज नष्ट हो गया है। गुरु के शाप से मेरी स्मरण-शक्ति खो गयी है। मैं विद्या से वंचित होने के कारण बहुत दु:खी हूँ। विद्या की अधिदेवते! तुम मुझे ज्ञान, स्मृति, विद्या, प्रतिष्ठा, कवित्व-शक्ति, शिष्यों को समझाने की शक्ति तथा ग्रंथरचना करने की क्षमता दो। साथ ही मुझे अपना उत्तम एवं सुप्रतिष्ठित शिष्य बना लो। माता! मुझे प्रतिभा तथा सत्पुरुषों की सभा में विचार प्रकट करने की उत्तम क्षमता दो। दुर्भाग्यवश मेरा जो सम्पूर्ण ज्ञान नष्ट हो गया है, वह मुझे पुन: नवीन रूप में प्राप्त हो जाय। जिस प्रकार देवता धूल या राख में छिपे हुए बीज को समयानुसार अंकुरित कर देते हैं, वैसे ही तुम भी मेरे लुप्त ज्ञान को पुन: प्रकाशित कर दो। जो ब्रह्मस्वरूपा, परमा, ज्योतिरूपा, सनातनी तथा सम्पूर्ण विद्याओं की अधिष्ठात्री हैं, उन वाणीदेवी को बार-बार प्रणाम है। जिनके बिना सारा जगत् सदा जीते-जी मरे के समान है तथा जो ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी हैं, उन माता सरस्वती को बारंबार नमस्कार है। जिनके बिना सारा जगत् सदा गूँगा और पागल के समान हो जाएगा तथा जो वाणी की अधिष्ठात्री देवी हैं, उन वाग्देवता को बारंबार नमस्कार है।
जिनकी अंगकान्ति हिम, चन्दन, कुंद, चंद्रमा, कुमुद तथा श्वेतकमल के समान उज्जवल तथा जो वर्णों (अक्षरों)- की अधिष्ठात्री देवी हैं, उन अक्षर-स्वरूपा देवी सरस्वती को बारंबार नमस्कार है। विसर्ग, बिन्दु एवं मात्रा – इन तीनों का जो अधिष्ठान है, वह तुम हो; इस प्रकार साधु पुरुष तुम्हारी महिमा का गान करते हैं। तुम्हीं भारती हो। तुम्हें बारंबार नमस्कार है। जिनके बिना सुप्रसिद्ध गणक भी संख्या के परिगणन में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता, उन कालसंख्या-स्वरूपिणी भगवती को बारंबार नमस्कार है। जो व्याख्यास्वरूपा तथा व्याख्या की अधिष्ठात्री देवी हैं; भ्रम और सिद्धांत दोनों जिनके स्वरूप हैं, उन वाग्देवी को बारंबार नमस्कार है। जो स्मृतिशक्ति, ज्ञानशक्ति और बुद्धिशक्तिस्वरूपा हैं तथा जो प्रतिभा और कल्पनाशक्ति हैं, उन भगवती को बारंबार प्रणाम है। एक बार सनत्कुमार ने जब ब्रह्मा जी से ज्ञान पूछा, तब ब्रह्मा जि जडवत् हो गये। सिद्धांत की स्थापना करने में समर्थ न हो सके। तब स्वयं परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण वहां पधारे। उन्होंने आते ही कहा – ‘प्रजापते! तुम उन्हीं इष्टदेवी भगवती सरस्वती की स्तुति करो।’ देवि! परमप्रभु श्रीकृष्ण की आज्ञा पाकर ब्रह्मा ने तुम्हारी स्तुति की। तुम्हारे कृपा-प्रसाद से उत्तम सिद्धांत के विवेचन में सफलीभूत हो गये।
ऐसे ही एक समय की बात है – पृथ्वी ने महाभाग अनंत से ज्ञान का रहस्य पूछा, तब शेष जी भी मूकवत् हो गये। सिद्धांत नहीं बता सके। उनके ह्रदय में घबराहट उत्पन्न हो गयी। फिर कश्यप की आज्ञा के अनुसार उन्होंने सरस्वती की स्तुति की। इससे शेष ने भ्रम को दूर करनेवाले निर्मल सिद्धांत की स्थापना में सफलता प्राप्त कर ली। जब व्यास ने वाल्मीकि से पुराणसूत्र के विषय में प्रश्न किया, तब वे भी चुप हो गये। ऐसी स्थिति में वाल्मीकि ने आप जगदम्बा का ही स्मरण किया। आपने उन्हें वर दिया, जिसके प्रभाव से मुनिवर वाल्मीकि सिद्धांत का प्रतिपादन कर सके। उस समय उन्हें प्रमाद को मिटाने वाला निर्मल ज्ञान प्राप्त हो गया था। भगवान् श्रीकृष्ण के अंश व्यासजी वाल्मीकि मुनि के मुख से पुराणसूत्र सुनकर उसका अर्थ कविता के रूप में स्पष्ट करने के लिए तुम्हारी ही उपासना और ध्यान करने लगे। उन्होंने पुष्करक्षेत्र में रहकर सौ वर्षों तक उपासना की।
माता! तब तुमसे वर पाकर व्यासजी कवीश्वर बन गये। उस समय उन्होंने वेदों का विभाजन तथा पुराणों की रचना की। जब देवराज इंद्र ने भगवान् शंकर से तत्त्वज्ञान के विषय में प्रश्न किया, तब क्षणभर भगवती का ध्यान करके वे उन्हने ज्ञानोपदेश करने लगे। फिर इंद्र ने बृहस्पति से शब्दशास्त्र के विषय में पूछा। जगदम्बे! उस समय बृहस्पति पुष्करक्षेत्र में जाकर देवताओं के वर्ष से एक हजार वर्ष तक तुम्हारे ध्यान में संलग्न रहे। इतने वर्षों के बाद तुमने उन्हें वर प्रदान किया। तब वे इंद्र को शब्दशास्त्र और उसका अर्थ समझा सके। बृहस्पति ने जितने शिष्यों को पढ़ाया और जितने सुप्रसिद्ध मुनि उनसे अध्ययन कर चुके हैं, वे सब-के-सब भगवती सुरेश्वरी का चिन्तन करने के बाद ही सफलीभूत हुए हैं। माता! वह देवी तुम्हीं हो। मुनीश्वर, मनु और मानव – सभी तुम्हारी पूजा और स्तुति कर चुके हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, देवता और दानवेश्वर प्रभृति – सबने तुम्हारी उपासना की है। जब हजार मुखवाले शेष, पाँच मुख वाले शंकर तहत चार मुख वाले ब्रह्मा तुम्हारा यशोगान करने में जडवत् हो गये, तब एक मुखवाला मैं मानव तुम्हारी स्तुति कर ही कैसे सकता हूँ।
देवी सरस्वती की पूजा कैसे करें?
नारद! इस प्रकार स्तुति करके मुनिवर याज्ञवल्क्य भगवती सरस्वती को प्रणाम करने लगे। उस समय भक्ति के कारण उनका कंधा झुक गया था। उनकी आँखों से जल की धाराएँ निरंतर गिर रही थीं। इतने में ज्योति:स्वरूपा महामाया का उन्हें दर्शन प्राप्त हुआ। देवी ने उनसे कहा – ‘मुने! तुम सुप्रख्यत कवि हो जाओ।’ यों कहकर भगवती महामाया बैकुण्ठ पधार गयीं। जो पुरुष याज्ञवल्क्यरचित इस सरस्वती स्तोत्र को पढ़ता है, उसे कवीन्द्रपद की प्राप्ति हो जाती है। भाषण करने में बृहस्पति की तुलना कर सकता है। कोई महान मूर्ख अथबा दुर्बुद्धि ही क्यों न हो, यदि वह एक वर्षतक नियमपूर्वक इस स्तोत्र का पाठ करता है तो वह निश्चय ही पण्डित, परम बुद्धिमान एवं सुकवि हो जाता है।